लेखक -प्रणय कुमार
आस्था और विश्वास सनातन संस्कृति के प्राण-तत्त्व हैं। कण-कण में ईश्वर देखने वाली सनातनी दृष्टि व संस्कृति किसी-न-किसी रूप में अपनी आस्था व आस्तिकता को स्वर एवं अभिव्यक्ति देती रहती है। उनमें से कुछ अभिव्यक्ति तो इतनी जीवंत एवं मुखर होती हैं कि वे लोक-उत्सव का विहंगम व विराट दृश्य उपस्थित करती हैं। ऐसा ही दृश्य प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में कांवड़-यात्रा के समय देखने को मिलता है। इस मास में शिवभक्ति की अविरल धारा लगभग संपूर्ण भारतवर्ष में देखने को मिलती है। न केवल युवा एवं किशोर, अपितु स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, सभी भक्ति की इस पवित्र धारा में डुबकी लगाते नज़र आते हैं। वहाँ सब प्रकार की कृत्रिम एवं आरोपित दीवारें अपने-आप टूट जाती हैं। शिवभक्तों का यह स्वतः स्फूर्त जनसमूह राष्ट्र की सामाजिक समरसता का ऐसा अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है जिसमें गरीब-अमीर, अगड़े-पिछड़े, छोटे-बड़े, ऊंच-नीच सब एकरस हो उठते हैं। कांवड़ को कंधे पर उठाते ही राग-द्वेष, ऊंच-नीच, भाषा-क्षेत्र, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष आदि के सारे भेद मिट जाते हैं और सब केवल शिव भक्त के रूप में जाने व पहचाने जाते हैं और ‘बोल बम’ के समवेत स्वर से समस्त वातावरण गुंजायमान रहता है। कांवड़ यात्रा भगवान शिव की आराधना का एक शास्त्रीय रूप है। मान्यता है कि इस यात्रा के जरिए जो भक्त भगवान भोलेनाथ की आराधना कर उनकी कृपा प्राप्त कर लेता है, वह सब प्रकार के सांसारिक शाप-ताप से मुक्त हो जाता है। केवल निजी ही नहीं, बल्कि कांवड़िए अपने आस-पड़ोस, ग्राम-नगर के कल्याण की कामना व प्रार्थना भी भगवान भोलेनाथ से करते हैं। वस्तुतः हमारे हर त्योहार-उत्सव में लोक कल्याण की भावना सर्वोपरि रहती है। तमाम दुःख-कष्ट उठाकर भी किसी भाव व संकल्प की सिद्धि के लिए की गई धार्मिक यात्रा स्वाभाविक रूप से जनसाधारण की श्रद्धा के केंद्रबिंदु बन जाया करती है। धर्म-कर्म के लिए उठाए गए कष्ट के कारण ही कांवड़ियों की सेवा-सहायता के लिए सर्वसाधारण समाज सदैव उत्सुक एवं तत्पर रहता है। उनकी दृष्टि में भक्तिभाव से परिपूर्ण कांवड़िए किसी साधक या तपस्वी से कम नहीं होते। और कदाचित इसीलिए तीर्थमार्ग से गुजर रहे कांवड़ियों की सेवा-शुश्रूषा उनके लिए यश व प्रतिष्ठा से कहीं आगे पुण्य अर्जित करने का पवित्र अनुष्ठान बन जाया करती है।
कांवड़ के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है। जल आम लोगों के साथ-साथ पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारों-लाखों प्रकार के जीव-जंतुओं एवं समूचे पर्यावरण के लिए अत्यंत आवश्यक तत्त्व है। यही कारण है कि हमारे अधिकांश नगर नदियों के तट पर बसे हैं और उनमें से बहुतों को तीर्थस्थलों की मान्यता प्राप्त है। कांवड़िए जलस्रोत से एक बार जल भरकर उसे अभीष्ट कर्म के पूर्व अर्थात् शिवजी को अर्पण करने के पहले भूमि पर नहीं रखते हैं। इसके मूल में भावना यह है कि जलस्रोत से प्रभु को सीधे जोड़ा है, जिससे धारा प्राकृतिक रूप से उन पर बनी रहे एवं उनकी कृपा हमारे ऊपर भी सतत् धारा के अनुसार बहती रहे, जिससे संसार-सागर को सुगमता से पार किया जा सके। प्रतीकात्मक तौर पर कांवड़ यात्रा का संदेश यह भी है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हैं, वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। अतः मानव-जीवन के साथ-साथ पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, प्रकृति-पर्यावरण आदि को ध्यान में रखकर विभिन्न स्रोतों से प्राप्त किए गए जल का संचयन भी शिव की साधना का ही भिन्न रूप है और इससे समस्त सृष्टि के नियंता एवं करुणानिधान भगवान शिव सहज ही प्रसन्न होते हैं। शिव तत्व के समान इस कांवड़ यात्रा का दर्शन भी विलक्षण है। कांवड़ क्या है? वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार ”क” ब्रह्म का स्वरूप है और ”अवर” शब्द जीवन के लिए प्रयुक्त होता है। इस तरह ”कावर” का अर्थ हुआ, वह माध्यम जो ”जीव” का ”ब्रह्म” से मिलन कराए।
कांवड़ यात्रा के संबंध में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से जो हलाहल नामक विष निकला था, संपूर्ण जगती के कल्याण के लिए भगवान शंकर ने उसे पी लिया था। उस भयंकर विष का पान करने के कारण उनका कंठ नीला हो गया, जिस कारण उन्हें नीलकंठ भी कहा गया। उस विष के नकारात्मक प्रभाव ने नीलकंठ भगवान शिव को घेर लिया। उनके विषपान करने से दुनिया तो बच गई, परंतु उनका शरीर प्रचंड गर्मी से जलने लगा। उस विष के असर को शांत करने के लिए देवी पार्वती समेत सभी देवी-देवताओं ने उन पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया। तब जाकर भगवान शंकर विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए। इसी मान्यता के आधार पर कांवड़-यात्रा की शुरुआत हुई।
कांवड़-यात्रा के संदर्भ में अन्य अनेक पौराणिक मान्यताएँ भी प्रचलित हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी और कांवड़ में जल भरकर पुरा महादेव का गंगाजल से जलाभिषेक किया था। कुछ विद्वानों का मत है कि त्रेतायुग के श्रवण कुमार पहले कांवड़ यात्री थे। उन्होंने कांवड़ में बिठाकर अपने दृष्टिहीन माता-पिता को चारों धाम की तीर्थयात्रा कराई थी। तभी से कांवड़-यात्रा की यह प्रथा चल पड़ी। एक अन्य पुरा कथा के अनुसार रावण ने वैद्यनाथधाम में ज्योर्तिलिंग को स्थापित कर कांवड़ से जलाभिषेक किया था। आनंद रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा सदाशिव को कांवड़ चढ़ाने का उल्लेख मिलता है। इसी तरह रुद्रांश हनुमान द्वारा भोलेशंकर के अभिषेक के भी पौराणिक विवरण मिलते हैं। संभवतया इन्हीं पुरा कथाओं से प्रेरित होकर देवाधिदेव महादेव के अभिषेक की यह परंपरा शुरु हुई होगी। कारण चाहे जो भी रहे हों, पर समय के साथ-साथ कांवड़-यात्रा की परंपरा बलवती होती चली गई।
समय के साथ-साथ कांवड़-यात्रा की यह परंपरा बलवती होती गई है। बीते कुछ दशकों से तो कांवड़-यात्रा में सम्मिलित होने वाले शिवभक्तों की संख्या में भारी वृद्धि देखने को मिल रही है। बिहार, बंगाल, झारखंड, पूर्वी उत्तरप्रदेश व नेपाल से बाबाधाम तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, मध्यप्रदेश व राजस्थान आदि राज्यों से बड़ी संख्या में कांवड़िए हरिद्वार पहुँचते हैं। इस वर्ष हरिद्वार की कांवड़ यात्रा में लगभग 4.5 करोड़ शिवभक्तों के सम्मिलित होने की संभावना है। जिन तथाकथित बुद्धिजीवियों को कांवड़-यात्रा में केवल हल्ला-हुड़दंग नज़र आता है, उन्हें ज्ञात हो कि हर सनातनी त्योहार जीवन में आनंददायी ऊर्जा एवं आध्यात्मिक चेतना के संचार के साथ-साथ कारोबार एवं अर्थव्यवस्था को भी मजबूती प्रदान करता है। आँकड़े बताते हैं कि पिछले साल सावन महीने में हरिद्वार के कारोबारियों ने जहाँ 6000 करोड़ रुपए का कारोबार किया था, वहीं इस वर्ष इसके 8000 करोड़ रुपए तक पहुँचने की उम्मीद है। उल्लेखनीय है कि कांवड़-यात्रा से लाभांवित होने वाले लोगों में छोटे और मध्यम दर्जे के स्थानीय कारोबारियों की संख्या अधिक है। कांवड़-यात्रा या सनातन के अधिकांश त्योहार हाशिए पर छूट गए लोगों को मुख्यधारा में लाने का कार्य करते हैं या यों कहें कि किसी कारण से पीछे छूट गए लोगों को संग-साथ लाते हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति हरिद्वार के आँकड़ों से संपूर्ण देश की कांवड़-यात्राओं से प्राप्त होने वाले आर्थिक लाभ का सहज ही अनुमान लगा सकता है। सत्य यही है कि चाहे वे श्रावण मास में निकलने वाली कांवड़-यात्रा हो या अन्य सनातनी त्योहार, वे हमारे देश, समाज व संस्कृति की जीवन-रेखा (लाइफलाइन) हैं। दुःखद है कि उनकी महत्ता एवं व्यापकता को कुछ लोग अपनी मूढ़ता में या तो समझ नहीं पाते या बौद्धिक अहंकार में उन्हें अस्वीकार करने की कुचेष्टा करते रहते हैं।