जानिए महान योद्धा हेमू के बलिदान को जिसने मुगलों को दिल्ली से खदेड़ा दिया था ।

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लेखक – रमेश शर्मा

5 नवम्बर 1556 : सुप्रसिद्ध विजेता हेमू का बलिदान

किसी विश्वासघाती ने मारा था तीर : दिल्ली पर पुनः मुगलों का कब्जा

भारतीय इतिहास की घटनाओं में एक विवरण हर कालखंड में मिलता है । वह यह है कि भारत कभी भी विदेशी आक्रांताओं के शक्ति बल से पराजित नहीं हुआ । भारत की पराजय सदैव अपने ही लोगों के विश्वासघात के कारण हुई । सिकन्दर के आक्रमण से लेकर मराठों के हिन्दवी साम्राज्य के पतन और 1857 की क्राँति की असफलता तक एक ही कहानी है । कोई भी युद्ध ऐसा नहीं जिसमें भारत के ही किसी अपने ने किसी अपने के साथ विश्वास घात करके पीठ में वार न किया हो । अधिकांश युद्ध विवरण में इन विश्वासघातियों का नाम भी मिल जाता है पर कुछ युद्ध ऐसे भी हैं जिनमें पता ही न चलता कि किसने विश्वासघात किया था । वह अंत तक गुप्त रहा और समय के इतिहास में खो गया। मध्यकालीन युद्धों के इतिहास में एक यौद्धा ऐसा भी हुआ जिसने मुगलों और पठानों दोनों को पराजित करके दिल्ली से बाहर कर दिया और अपना शासन स्थापित कर लिया था । उसके शौर्य और शक्ति से पराजित होकर शेरशाह सूरी के वंशजों को दिल्ली से भागना पड़ा था और मुगल शासक हुमायूँ ने गुमनामी में भटकते हुये अपने प्राण त्याग दिये थे । इतिहास में यह महान यौद्धा हेमचंद्र भार्गव था । जो हेमचंद्र विक्रमादित्य के नाम से सुप्रसिद्ध है । यह एक ऐसा सितारा था जिसे भारत का नेपोलियन कहा जा सकता है । इसने जितने युद्ध किये सबमें जीत हासिल की । इतिहास में इनका उल्लेख बहुत कम है और कहीं कहीं तो अपशब्द का भी प्रयोग हुआ । यह अपशब्द मुगल और सल्तनत समर्थक इतिहासकारों ने डाले । सुप्रसिद्ध विजेता हेमू के उनकी बारे में राय अलग हो सकती है । पर भारतीय जन मानस के मन में इनकी छवि एक उज्जवल नक्षत्र की है । किंतु 5 नवम्बर 1556 इतिहास का एक दिन आया जब पानीपत के दूसरे युद्ध में विश्वासघात के तीर से वे न केवल हेमचंद्र विक्रमादित्य के प्राणों का बलिदान हुआ अपितु भारत के माथे पर पुनः एक लंबी पराजय की लकीर खींच दी । जिससे मुगल पुनः दिल्ली की गद्दी पर आसीन हो गये ।
सुप्रसिद्ध विजेता हेमचंद्र विक्रमादित्य का जन्म रिवाड़ी के एक साधारण भार्गव ब्राह्मण परिवार में हुआ उनकी जन्मतिथि 1501 मानी जाती है । उनके वंशजों की कुछ शाखायें आज भी देश के विभिन्न भागों में हैं । उनके घरों में अपने इस बलिदानी वीर के चित्र भी हैं और वे पूजा करते हैं । पर कुछ इतिहासकार उन्हें भार्गव गोत्रीय क्षत्रिय जाट मानते हैं। सत्य जो भी हो पर हेमचंद्र विक्रमादित्य अपने कौशल और योग्यता से आगे बढ़े । पहले वे दक्षिण भारत में आदिलशाही के प्रधान सेनापति और प्रधानमंत्री बने । उन्होंने जितनी लड़ाइयाँ लड़ी सब जीते । उन्होंने यह युद्ध आदिलशाही के लिये जीते थे । पर उनके मन में भारतीय संस्कृति की रक्षा का संकल्प दृढ़ होता रहा । वे भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये ततपर रहे । उन्होंने अपनी शक्ति बढ़ाई । और उत्तर भारत की ओर अभियान चलाया । वे विभिन्न क्षेत्रों को सल्तनत से मुक्त करते हुये आगरा पहुँचे। आगरा पर अधिकार किया और 1555 में दिल्ली की ओर अभियान छेड़ा। दिल्ली पर उन दिनों शेरशाह सूरी के वंशजों का अधिकार था । शेरशाह ने मुगल बादशाह हुमायूँ को खदेड़ कर दिल्ली पर अधिकार किया था । लेकिन शेरशाह 1545 कालिंजर के युद्ध में राजकुमारी दुर्गावती के हाथों मारा गया । ये वही सुविख्यात दुर्गावती हैं जो बाद में गोंडवाना की रानी बनी और जिनका अकबर के सेनापति आसफ खाँ से भयानक युद्ध हुआ था । पराजित होकर हुमायूँ पहले यहाँ वहां छिपते फिर रहे थे । फिर अपना परिवार लेकर काबुल भाग गये लेकिन उनका दिल्ली में संपर्क बना रहा । हुमायुँ दिल्ली पर पुनः अधिकार करने की योजना बना ही रहे थे कि दुनियाँ छोड़ गये । उनकी इच्छा पूरा करने का काम उनके सेनापति बेहराम खाँ ने किया । बेहराम खान अपनी जमावट कर रहा था कि यह घटनाक्रम घट गया । हेमचंद्र विक्रमादित्य ने दिल्ली पर धावा बोला और अफगानों की सेना को पराजित खदेड़ दिया । और अपना अधिकार कर लिया । बेहराम खान ने इस स्थिति का लाभ उठाया और दिल्ली में पराजित सूरी सल्तनत के उत्तराधिकारियों को अपनी ओर मिला लिया । दोनों ने मिलकर दिल्ली पर आक्रमण किया । कुशल यौद्धा हेमू ने उसे भी पराजित किया और खदेड दिया । लेकिन बेहराम खान ने दिल्ली में विश्वासघाती तलाशे और नवम्बर 1556 में पुनः धावा बोल दिया । जिसमें हेमचंद्र विक्रमादित्य पुनः भारी पड़े। मुगल सेना का भारी विनाश हुआ । यह विनाशकारी समाचार सुनकर बेहराम खाँ ने अली कुली खान शैबानी के नेतृत्व में घुड़सवार सेना को साथ आगे भेजा । तब हेमू हाथी पर सवार होकर युद्ध का संचालन कर रहे थे । अकबर और बैहराम खान ने युद्ध के मैदान से आठ मील की दूरी पर अपना कैंप लगाया था । यह मुगलों की रणनीति रहती थी कि शासक और प्रधान सेनापति सदैव युद्ध मैदान से दूर रहकर युद्ध संचालन करते थे जबकि भारतीय नायक आगे रहकर । इस युद्ध में भी ऐसा ही था । मुगल और सूरी की अफगान सेना ने मिलकर तीन ओर से हमला बोला । बायीं अली कुली खान शैबानी ने केंद्र में सिकंदर खान और अब्दुल्ला खान उज़्बक और दाँयी ओर मोहरा हुसैन कुली बेग और शाह कुली महरम के नेतृत्व में युद्ध आरंभ हुआ । हेमू ने हाथी पर सवार होकर युद्ध का संचालन किया । बाँयीं ओर उनकी बहन के बेटे राम्या,और दाहिनी ओर शादी खान कक्कड़ ने किया था। यह 5 नवम्बर 1556 का दिन था । दोपहर तक के भयानक युद्ध मुगल सेना के पैर उखड़ गये । तीनों मोर्चे से पीछे हटने लगी । हेमू ने अपने दल के हाथियों और घुड़सवारों सैनिकों से शत्रु सेना कुचलने के आदेश दिया । हेमू जीत के शिखर पर थे । तभी उनकी आँख में आकर एक तीर लगा और वे बेहोश हो गये । इससे उनकी सेना में खलबली मच गई । सैनिक युद्ध क्षेत्र से भागने लगे । मोर्चा टूट गया और युद्ध का पांसा पलट गया । जिस हाथी पर हेमू सवार थे वह पकड़ लिया गया और मुगल शिविर में ले जाया गया। बैरम खान ने हेमू के सिर काटकर दिल्ली में घुमाया । कत्लेआम आरंभ हुआ । लगभग पाँच हजार लोग मार डाले गये । मृतकों के सिरों की एक मीनार बनाई गई। उन दिनों अकबर की आयु लगभग तेरह वर्ष थी अकबर को हुमाँयु के उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी पर बैठा तो दिया गया था पर सारे राजकाज का संचालन बेहराम खान के हाथ में था ।
यह अंत तक पता नहीं चला कि हेमू को तीर किसने मारा । इसका कारण यह हो सकता है कि अपनी विजय के बाद मुगलों और अफगानों जो सामूहिक नरसंहार किया उसमें वह विश्वासघाती भी मारा गया होगा ।
इस तरह विश्वासघात से एक विजेता बलिदान हो गया और भारत पर दासत्व के अंधकार की रात लंबी हो गई।

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