सारस्वत सभ्यता
परंतु भारत की धरती पर उत्पन्न और पली संसार की इस प्राचीनतम सभ्यता के उदय के बारे में पश्चिम के कुछ पुरातत्वज्ञों ने प्रश्नचिन्ह खड़ा किया। वे कहते हैं कि वैदिक सभ्यता और सारस्वत सभ्यता भिन्न थीं, क्योंकि एक ग्राम्य कृषि प्रधान सभ्यता थी तो दूसरी नागर व्यापार-प्रधान। जैसे व्यापारिक नगर तथा कृषि-ग्राम साथ-साथ एक संस्कृति के अंग न हो सकते हों। भारत में सदा इनका सह-अस्तित्व रहा है। इस पूर्वाग्रह ने कि ‘आर्य’ बाद में बाहर से आए, सारस्वत सभ्यता को ‘अनार्य’ सभ्यता घोषित करना चाहा। कारण दिया,
अभी तक की खोज में सारस्वत सभ्यता के नगर मिले हैं। सभी नगर पूर्व-नियोजित ज्यामितीय ढाँचे में आयताकार हैं। उस समय की दृष्टि से खूब चौड़ी उत्तर-दक्षिण एवं पूर्व-पश्चिम समकोणीय सड़कें, जिनमें दो पहिए की बैलगाड़ियाँ और चार पहिए वाले रथ चल सकते थे। अच्छी तरह पकाई ईंटों से निर्मित बड़े सभा भवन तथा दुमंजिले आवास, जिनमें आँगन, सीढ़ियां, कुएँ, स्नानागार एवं शौचालय की व्यवस्था थी और छत का पानी निकालने के लिए परनाले। गृह के द्वार तथा खिड़कियाँ सड़क की ओर न होकर गली की ओर थे, जो दो से तीन मीटर तक चौड़ी थीं। बाजार, जहाँ क्रय-विक्रय के लिए चबूतरे थे। पश्चिम की ओर दुर्गनुमा विशाल कोठार, उसके पास संभवतया अनाज दलने तथा पीसने के पर्याप्त बड़े गोल चबूतरे। वहीं श्रमिकों के आवास और धातु गलाने की भट्ठियाँ। सड़कों से नगर कई भागों में विभक्त थे और संभवतया प्रत्येक भाग में किसी विशिष्ट व्यवसाय, निर्माण अथवा उत्पादन में लगे कारीगर रहते होंगे, ऐसा पुरातत्वज्ञों का मत है। क्या यह उस समय की वर्ण-व्यवस्था का या कर्म अथवा व्यवसाय के अनुसार विभाजन का पर्याय था? जल-निकासी का समुचित प्रबंध; भलीभाँति पाटों से ढकी नालियां। छोटी नालियां सड़क के दोनों ओर की पक्की नालियों से जाकर मिलती थीं। नालियों के किनारे गढ़े मिले, जहाँ कूड़ा अथवा नालियों का कीचड़ इकट्ठा किया जाता होगा। इन नालियों में कहीं-कहीं जल शोषक गड्ठे (soak pit) भी थे। सड़कों की सफाई का प्रचुर ध्यान तथा व्यवस्था थी। सबसे बड़ा आश्चर्य एक विशाल जल-संरक्षण का साधन है, जिसे कुछ ने स्नानागार कहा। यह एक पक्के तालाब के रूप में है, जिसमें पानी भरने और निकालने की व्यवस्था है। उसके किनारे नहाने के लिए कोठरियां हैं। तालाब की ईंटों की परतों के बीच डामर भरा है।
आवास तथा भवन के लिए पकी ईंट का प्रयोग प्राचीन सभ्यताओं में अभिनव था। सुमेर में इसका प्रयोग स्नानागार एवं शौचालय तक सीमित रहा। मिश्र में पकी ईंट का प्रयोग रोमन युग में प्रारंभ हुआ। स्पष्ट है कि सारस्वत सभ्यता में वास्तुकला तथा नगर-नियोजन के विशेषज्ञ थे, जो आधुनिक नगर-नियोजक की भाँति नगर, यातायात, आवास, व्यापारिक संस्थान, जल-संरक्षण और निकासी, स्वच्छता, मल तथा कूड़े की व्यवस्था आदि का योजनापूर्वक निर्माण कर सके। ऎसा नियोजन संसार की किसी सभ्यता में विक्रम संवत् की उन्नीसवीं शताब्दी तक नहीं मिलता, जब आधुनिक नगर बनने प्रारंभ हुए।
इस नगर सभ्यता के संभरण-पोषण के लिए बड़े पैमाने पर कृषि की आवश्यकता थी। बदलती जलवायु के कारण यहाँ के जंगल (जिसकी लकड़ी तथा ईंधन से पकी ईंटें प्राप्त हुईं), कृषि-क्षेत्र एवं संलग्न ग्राम और नदी से निकली सिंचाई की नहरें आज लुप्त हो गयीं। पर इनका अस्तित्व असंदिग्ध है। उपयोगी मृदभांड तथा कांस्य के पात्र मिलते हैं। इन बरतनों पर पशु-पक्षियों, जंतुओं अथवा वृक्षों के सरल रेखाचित्र और मानव आकृतियाँ हैं। वैसी ही हैं मिट्टी, पाषाण तथा काँसे की मूर्तियाँ। लोग पलथी लगाए बैठे हैं। हीरे-जवाहरात से सजी, केश सँवारे स्त्री प्रतिमाएँ। परंतु पुरूष प्राय: उघारे बदन हैं, जिनमें शरीर का सौष्ठव दिखता है। और ढेर सारी सेलखड़ी से बनी मुद्राएँ हैं जिनमें पशु आकृति, साधारणतया बैल की थी। इनमें कुछ लिखा है। भारतीय जीवन में ऎसे आँगनयुक्त भवन, उसी प्रकार पुरूषों के लिए गरम स्थलों में उघारे बदन रहना स्वाभाविक है। एक सींगधारी पुरूष की मूर्ति भी पायी गयी, जिसे कुछ पुरातत्वज्ञ शिव की मूर्ति समझते हैं। दूसरे पुरूषों की दाढ़ी युक्त मूर्तियाँ भी हैं, जिनमें मूँछों के बाल नहीं हैं। मुसलमानों हाजियों की यह प्रथा, जैसा चक्रवर्ती सम्राट सगर के आख्यान से प्रकट है, पहले भी थी।
आज भी सारस्वत सभ्यता अनेक रहस्यों से घिरी है, उनमें सबसे जटिल उनकी ‘कीलाक्षर लिपि’ है। वह पूर्णरूपेण पढ़ी नहीं जा सकी। डा. फतेहबहादुर सिंह ने, जो जोधपुर संग्रहालय के अध्यक्ष थे, उसके पाठ का यत्न किया। श्री सुब्बाराव ने अब पर्याप्त कार्य किया है। वैसे वैदेल (Waddel) ने अपनी पुस्तक ‘पुराण व इतिहास में सभ्यता के निर्माता’ (The makers of Civilization in Race and History) में एक स्थान पर एक मुद्रा की भाषा का रोमन लिपि में ध्वनि रूपांतर (phonetic translation) सुझाया- ‘DILIPT-PRT-JYNT-NR’; मेरे छोटे बाबा जी (चौ. धनराज सिंह) ने कहा था,
०१ – सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ – सभ्यता का आदि देश
०३ – सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ – सारस्वत सभ्यता
‘सिंधु सभ्यता को आर्य सभ्यता मानने पर भारत को आर्यों का आदि देश मानना आवश्यक हो जाएगा।’अनेक तर्क जो दिए जाते थे उनको आज सरस्वती नदी और उसके नगरों की खोज और इस नवीन शोध ने कि भारत मानव का आदि देश है, गलत सिद्ध किया है।
अभी तक की खोज में सारस्वत सभ्यता के नगर मिले हैं। सभी नगर पूर्व-नियोजित ज्यामितीय ढाँचे में आयताकार हैं। उस समय की दृष्टि से खूब चौड़ी उत्तर-दक्षिण एवं पूर्व-पश्चिम समकोणीय सड़कें, जिनमें दो पहिए की बैलगाड़ियाँ और चार पहिए वाले रथ चल सकते थे। अच्छी तरह पकाई ईंटों से निर्मित बड़े सभा भवन तथा दुमंजिले आवास, जिनमें आँगन, सीढ़ियां, कुएँ, स्नानागार एवं शौचालय की व्यवस्था थी और छत का पानी निकालने के लिए परनाले। गृह के द्वार तथा खिड़कियाँ सड़क की ओर न होकर गली की ओर थे, जो दो से तीन मीटर तक चौड़ी थीं। बाजार, जहाँ क्रय-विक्रय के लिए चबूतरे थे। पश्चिम की ओर दुर्गनुमा विशाल कोठार, उसके पास संभवतया अनाज दलने तथा पीसने के पर्याप्त बड़े गोल चबूतरे। वहीं श्रमिकों के आवास और धातु गलाने की भट्ठियाँ। सड़कों से नगर कई भागों में विभक्त थे और संभवतया प्रत्येक भाग में किसी विशिष्ट व्यवसाय, निर्माण अथवा उत्पादन में लगे कारीगर रहते होंगे, ऐसा पुरातत्वज्ञों का मत है। क्या यह उस समय की वर्ण-व्यवस्था का या कर्म अथवा व्यवसाय के अनुसार विभाजन का पर्याय था? जल-निकासी का समुचित प्रबंध; भलीभाँति पाटों से ढकी नालियां। छोटी नालियां सड़क के दोनों ओर की पक्की नालियों से जाकर मिलती थीं। नालियों के किनारे गढ़े मिले, जहाँ कूड़ा अथवा नालियों का कीचड़ इकट्ठा किया जाता होगा। इन नालियों में कहीं-कहीं जल शोषक गड्ठे (soak pit) भी थे। सड़कों की सफाई का प्रचुर ध्यान तथा व्यवस्था थी। सबसे बड़ा आश्चर्य एक विशाल जल-संरक्षण का साधन है, जिसे कुछ ने स्नानागार कहा। यह एक पक्के तालाब के रूप में है, जिसमें पानी भरने और निकालने की व्यवस्था है। उसके किनारे नहाने के लिए कोठरियां हैं। तालाब की ईंटों की परतों के बीच डामर भरा है।
आवास तथा भवन के लिए पकी ईंट का प्रयोग प्राचीन सभ्यताओं में अभिनव था। सुमेर में इसका प्रयोग स्नानागार एवं शौचालय तक सीमित रहा। मिश्र में पकी ईंट का प्रयोग रोमन युग में प्रारंभ हुआ। स्पष्ट है कि सारस्वत सभ्यता में वास्तुकला तथा नगर-नियोजन के विशेषज्ञ थे, जो आधुनिक नगर-नियोजक की भाँति नगर, यातायात, आवास, व्यापारिक संस्थान, जल-संरक्षण और निकासी, स्वच्छता, मल तथा कूड़े की व्यवस्था आदि का योजनापूर्वक निर्माण कर सके। ऎसा नियोजन संसार की किसी सभ्यता में विक्रम संवत् की उन्नीसवीं शताब्दी तक नहीं मिलता, जब आधुनिक नगर बनने प्रारंभ हुए।
इस नगर सभ्यता के संभरण-पोषण के लिए बड़े पैमाने पर कृषि की आवश्यकता थी। बदलती जलवायु के कारण यहाँ के जंगल (जिसकी लकड़ी तथा ईंधन से पकी ईंटें प्राप्त हुईं), कृषि-क्षेत्र एवं संलग्न ग्राम और नदी से निकली सिंचाई की नहरें आज लुप्त हो गयीं। पर इनका अस्तित्व असंदिग्ध है। उपयोगी मृदभांड तथा कांस्य के पात्र मिलते हैं। इन बरतनों पर पशु-पक्षियों, जंतुओं अथवा वृक्षों के सरल रेखाचित्र और मानव आकृतियाँ हैं। वैसी ही हैं मिट्टी, पाषाण तथा काँसे की मूर्तियाँ। लोग पलथी लगाए बैठे हैं। हीरे-जवाहरात से सजी, केश सँवारे स्त्री प्रतिमाएँ। परंतु पुरूष प्राय: उघारे बदन हैं, जिनमें शरीर का सौष्ठव दिखता है। और ढेर सारी सेलखड़ी से बनी मुद्राएँ हैं जिनमें पशु आकृति, साधारणतया बैल की थी। इनमें कुछ लिखा है। भारतीय जीवन में ऎसे आँगनयुक्त भवन, उसी प्रकार पुरूषों के लिए गरम स्थलों में उघारे बदन रहना स्वाभाविक है। एक सींगधारी पुरूष की मूर्ति भी पायी गयी, जिसे कुछ पुरातत्वज्ञ शिव की मूर्ति समझते हैं। दूसरे पुरूषों की दाढ़ी युक्त मूर्तियाँ भी हैं, जिनमें मूँछों के बाल नहीं हैं। मुसलमानों हाजियों की यह प्रथा, जैसा चक्रवर्ती सम्राट सगर के आख्यान से प्रकट है, पहले भी थी।
आज भी सारस्वत सभ्यता अनेक रहस्यों से घिरी है, उनमें सबसे जटिल उनकी ‘कीलाक्षर लिपि’ है। वह पूर्णरूपेण पढ़ी नहीं जा सकी। डा. फतेहबहादुर सिंह ने, जो जोधपुर संग्रहालय के अध्यक्ष थे, उसके पाठ का यत्न किया। श्री सुब्बाराव ने अब पर्याप्त कार्य किया है। वैसे वैदेल (Waddel) ने अपनी पुस्तक ‘पुराण व इतिहास में सभ्यता के निर्माता’ (The makers of Civilization in Race and History) में एक स्थान पर एक मुद्रा की भाषा का रोमन लिपि में ध्वनि रूपांतर (phonetic translation) सुझाया- ‘DILIPT-PRT-JYNT-NR’; मेरे छोटे बाबा जी (चौ. धनराज सिंह) ने कहा था,
‘कैसे पूर्वाग्रह ग्रसित हैं पाश्चात्य विद्वान! वे इसका अर्थ सामी अथवा आसुरी भाषा में खोजते हैं भारत की धरती में। अपने दोषपूर्ण आधार के कारण, कि यह आर्यों के पहले की कोई सभ्यता है। पढ़ो इसे संस्कृत में। मुद्रा कहती है-‘दिल्लीपति-पार्थ-जयंत-नर’। ये सब अर्जुन के नाम हैं।’मैंने कहा,
‘दिल्ली तो आधुनिक नाम है। तब कहाँ से आया?’हँसते हुए उन्होंने उत्तर दिया,
‘पुराणों में राजा ‘दिलीप’ का वर्णन है न? वे दिल्ली के पालक थे, इसी से ‘दिलीप’ नाम पड़ा।’जैसा भी हो, लिपि देर से पढ़ी जाने के एक कारण दुराग्रह है। इससे सारस्वत सभ्यता के उदय, इतिहास, दर्शन, समाज-रचना तथा धार्मिक विचार पर पड़ा आवरण अब धीरे-धीरे हट रहा है।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
अवतारों की कथा
स्मृतिकार और समाज रचना
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
अवतारों की कथा
स्मृतिकार और समाज रचना
प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ – सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ – सभ्यता का आदि देश
०३ – सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ – सारस्वत सभ्यता
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