उपसंहार: कालचक्र – सभ्यता की कहानी
साम्राज्य और सभ्यताओं का एक विचित्र संबंध रहा है। उसकी तथा साम्राज्य से अलिप्त एवं अलौकिक भारतीय संस्कृति की कहानी ऊपर कही गई है। इस अंतर को इतिहास से संबंधित कहावतें तथा वाक्-प्रयोग प्रदर्शित करते हैं।
भला हिटलर के जर्मनी ने क्यों अपने को ‘आर्य’ कहा? भारत के साथ यूरोपवासी, ईरानी, अफगानी, तुर्क, कुर्द, और एक विस्तृत भूभाग के रहनेवाले क्यों अपने को ‘आर्य’ कहते आए हैं? वास्तव में ‘आर्य’ कोई प्रजाति न थी, न ये किसी एक जाति के थे। हिन्दु पद्घति का जीवन बिताने वाले ‘आर्य’ कहलाते थे। महर्षि दयानन्द ने ‘आर्य’ की मीमांसा सांस्कृतिक दृष्टि से ‘श्रेष्ठ’ के अर्थ में की है। यूरेशिया की अनेक जातियों ने अपने को प्राचीन काल से आर्य कहना सीखा। यह ‘आर्य’ हिन्दु के सांस्कृतिक विस्तार और उस जीवन-पद्घति के अनुयायी होने की उदघोषणा है। इसी को दिखाता वेद का आदेश है,
इसी प्रकार इस संस्कृति का बोधपूर्ण वाक्यांश ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ है। भारतीय जहाँ कहीं गए, मानव में भ्रातत्व का संचार किया, उसे एक संस्कृति से जोड़ा। समूचे विश्व को इसका बोध कराया।
इस सांस्कृतिक साम्राज्य के अवशिष्ट चिन्ह सारे संसार में विद्यमान हैं। इतिहास की भयंकर भूलों ने उसे तिमिराच्छादित कर रखा है। इतिहासज्ञ पुरूषोत्तम नागेश ओक ने अपनी पुस्तक ‘विश्व इतिहास के कुछ विलुप्त अध्याय’ में लिखा है,
‘संस्कृति’ संस्कारों के समुच्चय को कहते हैं और ‘संस्कार’ का अर्थ है– जो ‘सम’ करे, ‘समता’ लाए। सच्ची समता समरसता में है। समरसता उत्पन्न करना ही संस्कृति है। मानव जीवन में विश्व-बंधुत्व का आदर्श समरसता से प्राप्त होता है। कभी इस विश्व-वंद्य संस्कृति को फैलाने का महान कार्य भारतीयों ने किया।
एक सदा उठने वाला प्रश्न है, किस दृष्टिकोण से प्राचीन सभ्यताओं की उपलब्धियों का मुल्यांकन करें? युद्घ एवं संघर्षों की गड़गड़ाहट के बीच लोगों के शौर्य, धैर्य एवं निष्ठा की परीक्षा हो सकती है, विज्ञान के महासंहारकारी यंत्रों का निर्माण हो सकता है; पर घोर यातनाएँ, मनुष्य की कलंकस्वरूप प्रवृत्तियाँ और राक्षसता का भी जन्म होता है। मानवता की घोर त्रासदी के समय जनमे फुफकारते विष को कौन पिएगा? वह कौन सभ्यता है, जिसने ‘विषपायी’ (महादेव) बनकर लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया? साम्राज्यों की हलचलों से दूर, शांतिकाल की सर्वकल्याणमयी,सबके मन-हृदय पर राज्य करने वाली संस्कृति, जिसने श्रेष्ठ जीवन-पद्घति के साथ हर छोटे भाग की निजी प्रतिभा विकसित करते हुए स्थानिक स्वायत्तता दी, स्वशासन दिया और एक समरसता से भरे मानव जीवन का निर्माण किया। जिसने आपस में बैठकर, भेदभाव मिटाकर समस्याएँ हल करने का नवीन दर्शन दिया, सबको नर से नारायण बनाने का यत्न किया वह संस्कृति धन्य है।
प्राचीन काल से चले आए भारतीय संस्कृति के इस प्रवार ने सारे संसार को स्नात किया था। पर जब इस प्रवाह का आदि स्त्रोत सूख गया या दुर्बल पड़ा तो विपथगामी प्रवृत्तियाँ हावी होना स्वाभाविक है। फिर भी यह कैसे हो सका कि विश्व को मानवता का संदेश देती, शांति की राह अपनाती, मन-हृदय को छूती यह संस्कृति बर्बर दरिंदों का शिकार बनी? यह विचारना शेष है। यदि सभ्यता से अनजान इतिहासकारों द्वारा जनित पूर्व धारणाएँ और पूर्व कल्पित मत ढहाना होगा और भारतीय सभ्यता की गंगा में स्नान करना होगा।
४२ – चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ – इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ – पताल देश व मय देश
४५ – अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत
४६ – दक्षिण अमेरिका व इन्का
४७ – स्पेन निवासियों का आगमन
४८ – अंध महाद्वीप, अफ्रीका
भला हिटलर के जर्मनी ने क्यों अपने को ‘आर्य’ कहा? भारत के साथ यूरोपवासी, ईरानी, अफगानी, तुर्क, कुर्द, और एक विस्तृत भूभाग के रहनेवाले क्यों अपने को ‘आर्य’ कहते आए हैं? वास्तव में ‘आर्य’ कोई प्रजाति न थी, न ये किसी एक जाति के थे। हिन्दु पद्घति का जीवन बिताने वाले ‘आर्य’ कहलाते थे। महर्षि दयानन्द ने ‘आर्य’ की मीमांसा सांस्कृतिक दृष्टि से ‘श्रेष्ठ’ के अर्थ में की है। यूरेशिया की अनेक जातियों ने अपने को प्राचीन काल से आर्य कहना सीखा। यह ‘आर्य’ हिन्दु के सांस्कृतिक विस्तार और उस जीवन-पद्घति के अनुयायी होने की उदघोषणा है। इसी को दिखाता वेद का आदेश है,
‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।’यदि आर्य कोई प्रजाति होती अथवा जाति के अर्थ में प्रयोग होता तो समूचे विश्व को आर्य बनाने की आकांक्षा उदित न होती। सभी मनुष्यों को श्रेष्ठ बनाने का विचार उसी के मन में आ सकता है जिसका उस श्रेष्ठत्व से साक्षात्कार हुआ हो।
इसी प्रकार इस संस्कृति का बोधपूर्ण वाक्यांश ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ है। भारतीय जहाँ कहीं गए, मानव में भ्रातत्व का संचार किया, उसे एक संस्कृति से जोड़ा। समूचे विश्व को इसका बोध कराया।
इस सांस्कृतिक साम्राज्य के अवशिष्ट चिन्ह सारे संसार में विद्यमान हैं। इतिहास की भयंकर भूलों ने उसे तिमिराच्छादित कर रखा है। इतिहासज्ञ पुरूषोत्तम नागेश ओक ने अपनी पुस्तक ‘विश्व इतिहास के कुछ विलुप्त अध्याय’ में लिखा है,
‘जब हम ईसाई मत और इसलाम द्वारा नष्ट किए गए इतिहास को खोदते हैं तो हम पाते हैं कि यहाँ कभी एक विश्वव्यापी हिंदु साम्राज्य विद्यमान था। एक-एक अंश से उस साम्राज्य की कथा की पुनर्रचना करने से हमें ऎसे शब्दों व वाक्याशों की उपलब्धि होती है जो अपने उस विलुप्त हिंदु साम्राज्य के बारे में ग्रंथों से परिपूर्ण चर्चा करते हैं।’इसका एक सूत्र संसार की बोलियों में संस्कृत के अपभ्रंश हैं।
‘संस्कृति’ संस्कारों के समुच्चय को कहते हैं और ‘संस्कार’ का अर्थ है– जो ‘सम’ करे, ‘समता’ लाए। सच्ची समता समरसता में है। समरसता उत्पन्न करना ही संस्कृति है। मानव जीवन में विश्व-बंधुत्व का आदर्श समरसता से प्राप्त होता है। कभी इस विश्व-वंद्य संस्कृति को फैलाने का महान कार्य भारतीयों ने किया।
एक सदा उठने वाला प्रश्न है, किस दृष्टिकोण से प्राचीन सभ्यताओं की उपलब्धियों का मुल्यांकन करें? युद्घ एवं संघर्षों की गड़गड़ाहट के बीच लोगों के शौर्य, धैर्य एवं निष्ठा की परीक्षा हो सकती है, विज्ञान के महासंहारकारी यंत्रों का निर्माण हो सकता है; पर घोर यातनाएँ, मनुष्य की कलंकस्वरूप प्रवृत्तियाँ और राक्षसता का भी जन्म होता है। मानवता की घोर त्रासदी के समय जनमे फुफकारते विष को कौन पिएगा? वह कौन सभ्यता है, जिसने ‘विषपायी’ (महादेव) बनकर लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया? साम्राज्यों की हलचलों से दूर, शांतिकाल की सर्वकल्याणमयी,सबके मन-हृदय पर राज्य करने वाली संस्कृति, जिसने श्रेष्ठ जीवन-पद्घति के साथ हर छोटे भाग की निजी प्रतिभा विकसित करते हुए स्थानिक स्वायत्तता दी, स्वशासन दिया और एक समरसता से भरे मानव जीवन का निर्माण किया। जिसने आपस में बैठकर, भेदभाव मिटाकर समस्याएँ हल करने का नवीन दर्शन दिया, सबको नर से नारायण बनाने का यत्न किया वह संस्कृति धन्य है।
प्राचीन काल से चले आए भारतीय संस्कृति के इस प्रवार ने सारे संसार को स्नात किया था। पर जब इस प्रवाह का आदि स्त्रोत सूख गया या दुर्बल पड़ा तो विपथगामी प्रवृत्तियाँ हावी होना स्वाभाविक है। फिर भी यह कैसे हो सका कि विश्व को मानवता का संदेश देती, शांति की राह अपनाती, मन-हृदय को छूती यह संस्कृति बर्बर दरिंदों का शिकार बनी? यह विचारना शेष है। यदि सभ्यता से अनजान इतिहासकारों द्वारा जनित पूर्व धारणाएँ और पूर्व कल्पित मत ढहाना होगा और भारतीय सभ्यता की गंगा में स्नान करना होगा।
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कालचक्र: सभ्यता की कहानी
प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०९ – बैबिलोनिया
१० – कस्सी व मितन्नी आर्य
११ – असुर जाति
१२ – आर्यान (ईरान)
१३ – ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ – अलक्षेन्द्र और भारत
१५ – भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ – भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ – मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ – पुलस्तिन् के यहूदी
१९ – यहूदी और बौद्ध मत
२० – जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ – एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ – फणीश अथवा पणि
२३ – योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ – योरोपीय सभ्यता के ‘द्रविड़’
२५ – ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ – यूनान
२७ – मखदूनिया
२८ – ईसा मसीह का अवतरण
२९ – ईसाई चर्च
३० – रोमन साम्राज्य
३१ – उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ – मंगोलिया
३३ – चीन
३४ – चीन को भारत की देन
१० – कस्सी व मितन्नी आर्य
११ – असुर जाति
१२ – आर्यान (ईरान)
१३ – ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ – अलक्षेन्द्र और भारत
१५ – भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ – भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ – मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ – पुलस्तिन् के यहूदी
१९ – यहूदी और बौद्ध मत
२० – जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ – एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ – फणीश अथवा पणि
२३ – योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ – योरोपीय सभ्यता के ‘द्रविड़’
२५ – ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ – यूनान
२७ – मखदूनिया
२८ – ईसा मसीह का अवतरण
२९ – ईसाई चर्च
३० – रोमन साम्राज्य
३१ – उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ – मंगोलिया
३३ – चीन
३४ – चीन को भारत की देन
३५ – अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ – ब्रम्ह देश
३७ – दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ – लघु भारत
४१ – मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह४२ – चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ – इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ – पताल देश व मय देश
४५ – अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत
४६ – दक्षिण अमेरिका व इन्का
४७ – स्पेन निवासियों का आगमन
४८ – अंध महाद्वीप, अफ्रीका
उपसंहार: कालचक्र – सभ्यता की कहानी